साँपो के बारे में कुछ महत्वपूर्ण जानकारी

साँप SNAKE

भारत में लगभग 300 प्रजातियों के साँप पाए जाते हैं। इन सभी प्रजातियों में आकार, लंबाई, रंग एवं विशेषता में बहुत विविधता है। इस देश में सबसे छोटा साँप सामान्य कीट साँप (Brahminy Worm Snake) है। यह केवल 15 सें.मी. लंबा होता है। सबसे बड़ा साँप चमकीला अजगर (Reticulated Python) है, जिसकी लंबाई लगभग 11 मी. होती है। साँप की बहुत ही कम प्रजातियाँ ऐसी हैं जो विषैली होती हैं। साँप विभिन्न भौगोलिक परिस्थितियों और वातावरण में पाए जाते हैं।

ऐसा समझा जाता है कि साँपों का विकास प्रागैतिहासिक काल की विशिष्ट छिपकली से हुआ। विकास की प्रक्रिया के दौरान उनका शरीर लंबा और धीर-धीरे छोर की ओर से पतला होता गया, और इस्तेमाल न करने के कारण पैर भी गायब हो गए। प्रचलित अवधारणा के विपरीत साँप की गति ज़्यादा तेज़ नहीं होती। पैर जैसे अवयव न होते हुए भी उनकी चाल विशिष्टतापूर्ण होती है। उनकी साधारण गति 3 कि.मी. प्रति घंटा और अधिकतम गति 7 कि.मी. प्रति घंटा होती है।

दुश्मन सामने आने पर साँप भाग जाना ही पसंद करते हैं। अगर भागने के लिए रास्ता नहीं मिला, तो साँप दुश्मन को विशिष्ट कृतियों से ख़तरे की चेतावनी देते हैं। उदाहरण के तौर पर, नाग (Cobra) फन निकालकर ज़ोर से फुफकारता है, घोणस (Russell’s Viper) प्रेशर कुकर की सीटी जैसी ज़ोर की आवाज़ करता है; तो फुर्सा (Saw-scaled Viper) अपने शरीर के आरी की किनारे जैसे शल्कों को आपस में रगड़कर आरी से लकड़ी काटने जैसी आवाज़ करता है।

बहुत से साँप अपने रंग की वजह से आसपास के वातावरण में इतने घुल-मिल जाते हैं कि तुरंत नज़र नहीं आते। उदा. हरे पेड़ की डाल पर हरा लता साँप (Common Vine Snake); रेत के ऊपर फुर्सा; तो घास-पात में घोणस तुरंत नज़र नहीं आते !

साँप का जीवन आसपास के तापमान से जुड़ा होता है। वैज्ञानिक साँप को Ectotherms ऐसा संबोधित करते हैं। Ecto मतलब बाहरी और Therma मतलब उष्णता। उनके शरीर का तापमान आसपास के तापमान के अनुसार बदलता रहता है। ऐसे प्राणियों को शीत-रक्तीय (Cold-blooded) कहा जाता है। तथ्य यह है कि साँप के

शरीर का तापमान स्तनपायी प्राणियों की तुलना में शीत होता है। इसके विपरीत स्तनपायी प्राणियों को उष्ण-रक्त्तीय (Warm-blooded), ऐसा संबोधित किया जाता है। बाहरी तापमान चाहे जो भी हो, इन प्राणियों का शारीरिक तापमान एक ही रहता है। स्तनपायी प्राणी प्रमुखतः शरीर के अंदर की रासायनिक प्रक्रिया और मांसपेशिया की हलचल के द्वारा शरीर का तापमान नियंत्रित करते हैं। इसमें उनके खान-पान का बड़ा महत्व है। केवल साँप ही ऐसा प्राणी है, जो अपने खाने का बहुत छोटा हिस्सा शारीरिक तापमान के लिए ख़र्च करता है। दूसरी विशेषता यह है कि साँप बहुत ही आलसी होते हैं। शिकार का पीछा करने के समय के अलावा, साँप ज़्यादातर शांत पड़े रहते हैं। इस वजह से भी उनको स्तनपायी प्राणियों की तुलना में बहुत ही कम ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। इसी वजह से ही साँप कई दिनों तक बिना खाए रह सकते हैं। एक भारतीय अजगर 2 साल 9 महीनों तक बिना कुछ खाए जीवित रहा, ऐसा दर्ज किया गया है। इससे समझा जा सकता है कि भुखमरी के समय साँप शरीर की चरबी का उपयोग ऊर्जा के लिए करता है।

हमें कई बार साँप धूप में पड़े दिखाई देते हैं। ठंड के मौसम में वो धूप से शरीर में उष्णता हासिल करते हैं। अपनी त्वचा के ज़रिए साँप बाहरी गरमी शरीर में समा लेता है। ऐसा न करने पर उनका जीना कठिन हो सकता है। साँप का शरीर यह तय कर सकता है कि उसे कितनी देर धूप में रहना है। उष्णता मिलने पर साँप शिकार या पानी के लिए, या फिर साथी ढूँढ़ने बाहर निकल सकते हैं। भले ही साँप को खाना कम लगता हो, परंतु उसे पानी की आवश्यकता बहुत रहती है। उनके शरीर के वज़न का 70% हिस्सा पानी होता है। पानी पीने से उनके आँतों की हलचल और मलविसर्जन प्रक्रिया ठीक से होती है। मगर साँप जिन प्रदेशों में रहते हैं, वहाँ कई बार पानी की कमी या अकाल पड़ सकता है। ऐसे समय में साँप अपने शरीर की चरबी से प्रोटीन और द्रव हासिल करते हैं।

अतिउष्ण या अतिशीत तापमान साँप को सहन नहीं होता। आसपास का तापमान 45 डिग्री सेंटिग्रेड से अधिक, या 8 डिग्री सेंटिग्रेड से कम हो जाना, साँपों के लिए घातक हो सकता है। ऐसे होते हुए भी ध्रुवीय प्रदेश को छोड़कर साँप साधारणतया सभी भूभागों में पाए जाते हैं। साँप अधिकतर उष्ण कटिबंध (Tropical) और समशीतोष्ण (Semi-tropical) प्रदेशों में पाए जाते हैं। रेगिस्तान के साँप, तापमान बढ़ जाने पर ठंडी रेत में अपने आप को दफ़न कर लेते हैं; या किसी पत्थर के नीचे अथवा किसी बड़े कॅक्टस की छाया में आसरा लेते हैं। फिर वे भोर के समय या देर शाम को तापमान कम होने के बाद ही बाहर निकलते हैं।

इसी प्रकार से तापमान बहुत कम होने पर साँप कुछ भी हलचल न करते हुए और कुछ भी न खाते हुए, पत्थरों के नीचे दरारों में शीतनिद्रा (Hibernation) लेते हैं। इस

दौरान ऊर्जा के लिए साँप अपने शरीर में जमा की हुई चरबी का उपयोग करते हैं। विष के संदर्भ में साँपों का वर्गीकरण तीन प्रकार से किया जाता है। विषहीन, हल्का

विषैला और विषैला। भले ही साँप हल्का विषैला हो, परंतु वह भी विषैले साँप के समान ज़हरीला होता है। हल्के विषैले साँप के विष से आदमी की जान को ज़्यादा ख़तरा नहीं होता, परंतु शिकार (छोटे प्राणी) के लिए साँप का विष प्राणघातक होता है।

ज़्यादातर साँप दूसरे प्राणियों को खाकर ही खुद जीवित रहते हैं। कुछ साँप झाड़ियों के पीछे छुपकर या पत्थर की आड़ में ताक लगाकर बैठते हैं और मौका मिलते ही शिकार को झपट लेते हैं। तो कई दूसरे प्रकार के साँप अंडे, केंचुए आदि सहजता से मिलने वाले खाद्य खाकर जीते हैं। शिकार पकड़ते समय कई साँपों की प्रजातियाँ (उदा. घोणस) अपनी ताप संवेदक क्षमता का इस्तेमाल करती हैं। इस क्षमता का उपयोग कर, ये साँप अपने उष्ण-रक्तीय शिकार को अचूकता से निशाना बना सकते हैं।

साँपों के आकार के अनुसार उनके खाने में छोटी-छोटी चींटियों के अंडों से लेकर हिरन जैसे मध्यम आकार के प्राणी समाविष्ट होते हैं। साँप के मुँह की संरचना ऐसी होती है कि वे बड़े शिकार पकड़ने में सक्षम होते हैं। साँप का नीचे का और ऊपर का जबड़ा एक-दूसरे से जुड़ा न होने के कारण वे मुँह को इतना फैला सकते हैं कि बड़ा शिकार भी निगल सकें।

विषहीन साँप शिकार को अपने चंगुल में लेकर घोंटकर मार देते हैं। विषैले साँप शिकार को मारने के लिए अपने विष का इस्तेमाल करते हैं।

विषैले साँप उनके विषदंतों से शिकार के शरीर के भीतर विष डालते हैं। विष से कुछ ही क्षणों में शिकार बेहोश हो जाता है। विष में पाचक द्रव्य होते हैं। इस कारण शिकार को हजम करना साँप के लिए आसान हो जाता है।

साँप की कुछ प्रजातियाँ अंडज (Oviparous) मतलब अंडे देने वाली होती हैं तथा कुछ प्रजातियाँ जारज (Ovo-Viviparous) मतलब बच्चों को जन्म देती हैं। जन्म के तुरंत बाद बच्चे माँ से अलग हो जाते हैं। साँप न तो बच्चों का भरण-पोषण करते हैं और न ही अंडे देने के बाद अंडों के पास रहते हैं।

परंतु अजगर, नाग और नागराज ये इसके अपवाद हैं। ये साँप अपने अंडों का संरक्षण करते हैं और अंडे सेते हैं। साँप मूलतः शीत-रक्तीय होने की वजह से अंडे सेने के लिए अपने शल्क एक-दूसरों के ऊपर रगड़कर ऊर्जा का निर्माण करते हैं।